Shree krantivir sardarsinh rana
- जन्म: 10 अप्रैल, 1870, रामनवमी
- जन्मस्थान: कंथरिया, ता:चुडा, जि:सुरेन्द्रनगर, गुजरात
- माता: फुलजीबा
- पिता: रवाजीभाई
- परिवार में तीन बहन और भाई थे
- शिक्षा: प्रारंभिक: कंथारिया और ध्रांगध्रा हाईस्कूल: आल्फ्रेड हाईस्कूल, राजकोट, गुजरात कॉलेज: एलफिन्स्टन कॉलेज, मुंबई. फर्ग्यूसन कॉलेज, पुणे. 1898 में उन्होंने बी.ए. की डीग्री प्राप्त की। उच्च अभ्यास: वर्ष 1900 में लंदन से बारऐट-लॉ परीक्षा पास की और बारिस्टर की डिग्री प्राप्त की.
- लंदन में अभ्यास के दौरान उन्होंने हीरे-जवाहरात के व्यव्साय में कमीशन ऐजन्ट के नाते कार्य किया। लंदन और पेरिस में वे फ्रेंच और जर्मन भाषा के इंटरप्रीटर के नाते भी काम करते थे.
- लंदन स्थित 'इन्डीया हाउस' के वे स्थापक सदस्य थे। पंडित श्यामजी कृष्णवर्मा और मैडम कामा के साथ यहीं से भारत की स्वतंत्रता के लिये क्रांतिकारी आंदोलन शुरु हुवा. हिन्दुस्तान में बम और पिस्तौल का युग प्रारंभ करने का श्रेय इन तीनों लोगों को जाता है।
- वर्ष 1905 में उनको 'होमरुल सोसायटी' के उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया.
- लंदन से अंग्रेज़ी में 'इंडियन सोसीयोलॉजिस्ट' नाम से एक अखबार का प्रकाशन शुरू किया गया. पंडित श्यामजी कृष्णवर्मा इनके संपादक रहे. भारत में अंग्रेज़ी शासन के ज़ुल्म और क्रूरता की खबरे लेखों के माध्यम से दुनिया के सामने स्पष्टरुप से कहने की शुरुआत की गई.
- भारतीय युवक और युवती, जो आगे का अभ्यास भारत से बहार करना चाहते थे उनके लिए राणाजी ने २००० रुपये की राशी की एक एसी तीन शिष्यवृति की घोषणा 'इंडियन सोसीयोलॉजिस्ट' में की. वीर सावरकर समेत कई युवक-युवती को यह शिष्यवृति दी गई।
- १९०७ में जर्मनी के स्टुटगार्ट शहर में आंतरराष्ट्रीय सोसीयोलॉजिस्ट परिषद का आयोजन हुआ था. २२ अगस्त के रोज राणाजी और मादम कामा ने अपने भारत का सबसे पहला तिरंगा राष्ट्रध्वज बनाया और परिषद में फहराया. मादम कामा ने भारत की स्वतंत्रता के बारे में ओजस्वी भाषण दिया।
- १९०८ में स्वतंत्रता संग्राम १८५७ के ५० वर्ष पूरे होने वाले थे. अर्ध शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में, इन्डीया हाउस में एक शानदार समारोह आयोजित किया गया. इस ऐतिहासिकन समारोह के अध्यक्ष राणाजी स्वयं थे.
- अंग्रेज सरकार के सामने क्रान्तिकारी आन्दोलन छेड़ने और भारत की स्वतंत्रता के लिए काम करने के आरोप तले राणाजी को जलावतन की सजा सुनाई गई, देश निकल. राणाजी का भारत में प्रवेश प्रतिबंधित किया गया.
- इस दौरान उन्होंने हीरे-जवाहरात का नीजी व्यवसाय फ्रांस के पेरिस शहर में स्थायी किया. फ्रांस की नागरिकता ग्रहण की.
- लंदन में मदनलाल धिंगरा ने कर्जन वायली को ढेर किया. रिवोल्वर राणाजी ने दी थी. पुलिस छानबीन का छोर राणाजी के पेरिस निवास तक पहुंचा था.
- १९१४ में प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ. इंग्लेंड ने युद्ध में मित्र-राष्ट्र होने के नाते फ्रांस पर राणाजी के गिरफ़्तारी का दबाव डाला. फ्रांस ने उनको नजरकेद रखा. युद्ध समाप्ति तक वे फ्रांस के मार्टिनिक द्वीप पर नजरकेद रहे. कृषि और पशुपालन के काम करके उन्होंने अपनी आजीविका कमाई. १९२० में जब युद्ध समाप्त हुआ तो ६ साल बाद नजरकेद से मुक्त हुए. वापस पेरिस आये और अपना हीरे जवाहरात का व्यवसाय फिरसे शुरु किया.
- 'बनारस हिंदू विश्वविद्यालय' के निर्माण हेतु चंदा एकत्रित करने के उदेश्य से पंडित मदन मोहन मालवीय पेरिस पहुंचे थे. राणाजी ने पेरिस में रहते भारतीयों के पास से २८ लाख का चंदा इकठ्ठा करने में सहायता की. कुल जमा राशी में राणाजी का योगदान सर्वाधिक, ५ लाख रुपये का था.
- वीर सावरकर ने 'वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस -१८५७' नामक पुस्तक लिखी. इस पुस्तक को छापने की पूरी व्यवस्था राणाजी ने की, और गुप्तरूप से इसे भारत में भी पहुंचाया.
- उन्होंने सेनापति बापट और इन्दुलाल याज्ञिक को बम बनाने की विधि सिखने हेतू रशिया के मास्को शहर भेजा था. बम मेन्युअल तैयार होते ही उसे हीरे-जवाहरात के पेकेजींग कागज़ के रूप में भारत में पंहूचा दीया.
- लाला लाजपतराय ने 'अनहेपी इन्डीया' नामक पुस्तक राणाजी के पेरिस स्थित निवास पर पांच साल की लंबी अवधि के दौरान लिखा. इस पुस्तक को छपवाने की पूरी व्यवस्था राणाजी ने की थी.
- कविवर रवींद्रनाथ टागोर के मन में 'शांतीनिकेतन' की कल्पना को साकार करने की प्रबल इच्छा थी. घनिष्ट मित्रता के नाते राणाजी ने उनकी भेंट प्रो.सिल्वा लेवी और रोमा रोलां जैसे विद्वानों से करवाई, परिणाम स्वरूप शांतीनिकेतन साकार हुआ.
- अंग्रेज सरकार वीर सावरकर को गिरफ्तार करके इंग्लेंड से समुद्री जहाज में भारत ला रहे थे. फ्रांस के मार्सेल्स बंदरगाह नजदिक सावरकर ने कैद से छुटने हेतु ऐतिहासिक छलांग लगाईं. तैरते हुए तट पर पहोंचे. अंग्रेजो ने उन्हें फीर से पकड़ लिया. इस घटना को राणाजी हेग, नेधरलेंड स्थित आंतरराष्ट्रीय अदालत में ले गये, केस लडे.
- उन्होंने अपने पुस्तकालय से करीब एक लाख पुस्तक सरबोन यूनिवर्सिटी, पेरिस और शांतीनिकेतन, भारत को भेंट दीए.
- द्वितिय महाविश्व युद्ध के दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोज भारत में नजरकेद से भागते हुए जर्मनी पहुचे थे. राणाजी ने जर्मन रेडियो से सुभाषबाबू के ऐतिहासिक भाषण के प्रसारण की व्यवस्था की थी.
- १९४७ में भारत स्वतंत्र हुआ. भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के आमंत्रण से ४० से अधिक वर्षो के जलावतन सजा के बाद, राणाजी स्वदेश आये. सरकार के अतिथी के रूप में दिल्ही रहे. गांधीजी समेत कई नेता और गणमान्य लोगों से मिले.
- दिल्ही से अपने वतन लींबडी आये. सालों बाद परिवारजन और मित्रो से भेट हुई. कुछ समय यहाँ रूकते हुए, वे फिरसे पेरिस जाने के लिये निकले.
- वर्ष १९५१ में, फ्रांस की सरकार ने राणाजी को फ्रान्स के सर्वोच्च नागरिक सन्मान 'शेवालियर' के अवार्ड से सन्मानित किया.
- पेरिस में राणाजी को बढ़ती आयु की समस्याओं ने घेरा. फ्रांस छोड़कर, सदा के लिये भारत, लींबडी आ गये.
- १९५७, २५ मई के दिन उन्होंने वेरावल स्थित सरकिट हाउस में अपनी अंतिम श्वास ली.